हिंदोस्तां की मिट्टी के आसमां का जादू, जंग-ए-आज़ादी में ये था उर्दू ज़बां का जादू!

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“वो करे बात तो हर लफ़्ज़ से ख़ुश्बू आए
ऐसी बोली वही बोले जिसे उर्दू आए”

– अहमद वसी

उर्दू ज़बान (भाषा) अपनी नज़ाकत, शानदार मौसीक़ी, सुरीले अंदाज़ और हिंदुस्तानी तहज़ीब के लिए पहचानी जाती है. उर्दू लिटरेचर की अपनी एक अलग और रिच दुनिया रही है. फ़ारसी के बाद, साल 1830 के आसपास से 1947 तक उर्दू भारत की ऑफिशियल लैंग्वेज रही. इस बीच भारत ने हुकूमत, बग़ावत, आंदोलन, जुलूस, नरसंहार के अलावा कई चीजें देखीं. हिंदुस्तान ने अपनी आज़ादी के लिए हर मुमकिन कोशिश से लेकर कामयाबी तक का सफ़र तय किया, जिसको हम जंग-ए-आज़ादी यानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian Independence Movement) कहते हैं. 

आज़ादी की लड़ाई के दौर में हिंदुस्तान के रहनुमाओं और अवाम ने सरबुलंदी के कई तरीक़े अपनाए. इसके साथ ही उर्दू अदब के क़लमकारों ने अपने कलाम के ज़रिए लोगों को बेदार करने का काम किया, जिसमें उर्दू शायरी (Urdu Poetry)  का ख़ास मक़ाम देखने को मिलता है.

“सर चढ़ के बोलता है उर्दू ज़बां का जादू 
हिन्दोस्तां की मिट्टी के आसमां का जादू 
हिन्दोस्तां का जादू सारे जहां का जादू 
सर चढ़ के बोलता है उर्दू ज़बां का जादू”

– फ़रहत एहसास

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू शायरी

हिंदुस्तान के बेहतरीन साहित्य का एक हिस्सा, जो आम लोगों के दिलों के सबसे क़रीब रहा है, वह उर्दू शायरी है. दिल्ली की गलियों में पैदा हुई उर्दू 19वीं सदी में मोहब्बत की भाषा बनी, 20वीं और 21वीं सदी में बग़वात की ज़बान बन गई.  स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तमाम उर्दू शायरों ने अपनी लेखनी के ज़रिए लोगों के अंदर लड़ने का जज़्बा-ए-शौक़ पैदा किया. आशिक़ी से इतर उर्दू साहित्य, साल 1857 से 1947 तक ब्रितानी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का ज़रिया बना.

अल्ताफ़ हुसैन हाली, शिबली नोमानी, बृज नारायण चकबस्त, हसरत मोहानी, ज़फ़र अली ख़ान, जोश मलीहाबादी, अल्लामा इक़बाल, दुर्गा सहाय, मोहम्मद अली जौहर और उनके भाई शौक़त अली, सुरूर जहानाबादी, अली सरदार जाफ़री, बिस्मिल अज़ीमबादी, चंद्रशेखर आज़ाद और त्रिलोक चंद महरूम जैसे पच्चीसों शायरों के साथ उर्दू ने एक पूरी पीढ़ी को संगठित कर जंग-ए-आज़ादी में अहम भूमिका निभाई. 

‘उर्दू शायरी और जंग-ए-आज़ादी, चोली दामन का साथ…’

थिएटर डायरेक्टर और उर्दू-हिंदी नाटककार डॉ. एम सईद आलम ‘aajtak.in’ के साथ बातचीत में कहते हैं, “उर्दू शायरी, उर्दू शायर और हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई को हम मुख़्तसरन ‘चोली दामन का साथ’ कह सकते है. आज़ादी की लड़ाई से उर्दू शायरी की बहुत बड़ी ख़ुसूसियत है. उर्दू के बहुत सारे शायरों ने सिर्फ़ क़लम का ही इस्तेमाल नहीं किया बल्कि वो स्वतंत्रता सेनानी भी थे, उन्होंने क़लम चलाने के साथ-साथ लड़ाई में भी हिस्सा लिया. वे जेल गए, सज़ाएं काटीं. कुछ उर्दू शोहरा तो गांधी जी, पंडित नेहरू, मौलाना आज़ाद और सरदार पटेल से बहुत पहले क़ैद किए गए और मुसीबतें बर्दाश्त की हैं. इस फ़ेहरिस्त में सबसे पहले हसरत मोहानी का नाम आता है. उन्होंने ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया. वो तक़रीबन तीन या चार बार जेल गए और बड़ी सख़्त सज़ाएं बर्दाश्त कीं, चक्की चलाई, जिसकी वजह से उनका एक शेर बहुत मशहूर है.”

“है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी,
इक तुर्फ़ा (अजीब) तमाशा है ‘हसरत’ की तबीअत भी”

– हसरत मोहानी

urdu poetry in indian Independence movement

डॉ. एम सईद आलम आगे कहते हैं, “मौलाना हसरत मोहानी को तो आज़ादी का सिपाही तसव्वुर कर सकते हैं, वो भी उस दौर का जिस दौर में गांधी जी जैसे लोग नहीं आए थे यानी 1920 से पहले, जो शुरू-शुरू की जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई है. तिलक के साथ हसरत मोहानी का बहुत ही पुराना रिश्ता रहा है. सियासी शयारी की बुनियाद हसरत मोहानी ने ही डाली और वो भी उन्होंने ग़ज़लों में सियासी शेर कहे. उनका बहुत बड़ा योगदान है आज़ादी की लड़ाई में भी और उर्दू शायरी में भी. हसरत ने ग़ज़ल के परदे में भी इंक़लाबी शायरी की, जो बड़ा मुश्क़िल काम है क्योंकि ग़ज़ल के परदे में रूमानी शायरी होती है.”

वे आगे कहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान देने वाले लोगों में जो दूसरा नाम ज़ेहन में आता है, वो जोश का है. जोश ने बहुत इंक़लाबी नज़्में कहीं. अकबर इलाहाबादी, जो आज़ादी की लड़ाई में ब-राह-ए-रास्त (सीधे तौर पर) नहीं शामिल रहे क्योंकि वो सरकारी अफ़सर थे लेकिन उन्होंने गांधी जी पर 300 शेर कहे. गांधी जी पर जितनी शायरी अकबर इलाहाबादी ने की है, वो और किसी ज़बान में किसी शायर ने की ही नहीं. उन्होंने ‘गांधीनामा’ लिखा और गांधी जी की तारीफ़ में बड़े अच्छे-अच्छे मिज़ाहिया (हास्य) शेर लिखे जिसमें मक़सद शामिल है.

“भाई गांधी का निहायत ही मुक़द्दस काम है,
रामपूरी साथ हैं और राम ही का नाम है”

– अकबर इलाहाबादी

स्वतंत्रता संग्राम में आवाज़ बुलंद करने वाले उर्दू शायर

जोश मलीहाबादी: ‘शायर-ए-इंकलाब’ यानी क्रांतिकारी शायर की उपाधि से नवाज़े गए क़लमकार जोश मलीहाबादी की इंक़लाबी शायरी को हम कैसे भूल सकते हैं. उनकी क़लम से निकली नज़्म ‘वतन’ उनके बाग़ी लहजे का सुबूत है. उनके शब्दों की ताक़त, उतार-चढ़ाव और तुकबंदी जैसी विशेषताएं, पढ़ने वाले के मुर्झाए दिल को जगाने का काम करती हैं और वतन के लिए आगे आकर लड़ने की ताक़त देती हैं. 

“हम ज़मीं को तिरी नापाक न होने देंगे 
तेरे दामन को कभी चाक न होने देंगे 
तुझ को जीते हैं तो ग़मनाक न होने देंगे 
ऐसी इक्सीर को यूं ख़ाक न होने देंगे 
जी में ठानी है यही जी से गुज़र जाएंगे 
कम से कम वादा ये करते हैं कि मर जाएंगे”

हसरत मोहानी: साल 1921 में शायर हसरत मोहानी द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के रूप में लिखा गया नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जंग-ए-आज़ादी का गीत बन गया. हसरत मोहानी, 1921 में हिंदुस्तान के लिए आज़ादी-ए-कामिल यानी पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने वाले पहले शख़्स थे. 

hasrat mohani
उर्दू शायर हसरत मोहानी

“रस्म-ए-जफ़ा कामयाब देखिये कब तक रहे
हुब्ब-ए-वतन मस्त-ए-ख़्वाब कब तक रहे
दौलत-ए-हिंदुस्तान क़ब्ज़ा अग़्यार में 
बे अदद ओ बे-हिसाब देखिए कब तक रहे”

हसरत मोहानी इन लाइनों में कहते हैं, “आइए देखें कि हम कब तक उत्पीड़ित रहेंगे, कब तक आज़ादी एक ख़्वाब बनी रहेगी और कब तक अंग्रेज़ भारत की संपत्ति लूटते रहेंगे.”

बृज नारायण चकबस्त: रामायण पर अपनी नज़्म के लिए मशहूर बृज नारायण चकबस्त ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान निडरता से भरी कई नज़्में लिखीं. उनकी मार्मिक नज़्मों में ‘हुब्ब-ए-क़ौमी’, ‘हमारा वतन दिल से प्यारा वतन’ और ‘खाक़-ए-हिंद’ शामिल हैं. इसके अलावा उनकी नज़्म ‘वतन का राग’ एक ऐसा कलाम है, जो इस बात की गवाही देता है कि कैसे एक बेहतरीन शायर अपनी रचना में एक गंभीर राजनीतिक मुद्दे को बड़े ही शानदार तरीक़े से पेश कर सकता है. साल 1910 में ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा जबरन लागू किए गए होमरूल की बृज नारायण चकबस्त ने तीख़ी आलोचना करते हुए ये नज़्म लिखी थी, जो आंदोलन के लिए एक प्रेरणा मानी जाती है.

“तलब (तलाश) फ़ुज़ूल है कांटे की फूल के बदले 
न लें बहिश्त (जन्नत) भी हम होम-रूल के बदले 
वतन-परस्त शहीदों की ख़ाक लाएंगे 
हम अपनी आंख का सुर्मा उसे बनाएंगे 
हमारे वास्ते ज़ंजीर-ओ-तौक़ गहना है 
वफ़ा के शौक़ में गांधी ने जिस को पहना है”

मिर्ज़ा ग़ालिब: फ़लसफ़ी शायरी के मशहूर मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 की बग़ावत पर आधारित ‘1857’ नाम का क़िता (मोनोराइम पोएट्री का एक रूप) लिखा. इसमें उन्होंने अंग्रेज़ी सेना द्वारा दिल्ली शहर को लूटने की दास्तान बयान की. 

“चौक जिस को कहें वो मक़्तल (रणभूमि) है 
घर बना है नमूना ज़िंदां (जेल) का 
शहर-ए-देहली का ज़र्रा ज़र्रा ख़ाक 
तिश्ना-ए-ख़ूं है हर मुसलमां का 
कोई वां से न आ सके यां तक 

आदमी वां न जा सके यां का”

mirza ghalib
मिर्ज़ा ग़ालिब

ग़ालिब ने अपने कलाम के ज़रिए तत्कालीन हालात की वो मार्मिक तस्वीर बनाई, जिस वक़्त हर गली-चौराहा फांसी की जगह और हर घर कैद बन गया था. 

अल्ताफ़ हुसैन हाली: ब्रिटिश शासन से आज़ादी के लिए आवाज़ उठाने वाले अग्रणी शायरों में शामिल अल्ताफ़ हुसैन की नज़्म ‘हुब्ब-ए-वतन’ देशभक्ति से सराबोर है, जो बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय हुई.

“तेरी इक मुश्त-ए-ख़ाक (मुट्ठी भर मिट्टी) के बदले 
लूं न हरगिज़ अगर बहिश्त (जन्नत) मिले 
जान जब तक न हो बदन से जुदा 
कोई दुश्मन न हो वतन से हवा”

शिबली नोमानी: अल्ताफ़ हुसैन हाली की तरह ही शिबली के कलाम में भी देशभक्ति का अक्स देखने को मिलता है. उनकी नज़्म का बाग़ी लहजा महसूस करने लायक है. अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में अवाम पर जो दमन किया गया, शिबली नोमानी ने अपनी नज़्म ‘तिफ़्ल-ए-सियासत’ में उस पर सवाल खड़ा किया है. 

“ये माना तुमको शिकवा है फ़लक से ख़ुश्क-साली (सूखा) का
हम अपने ख़ून से सींचें तुम्हारी खेतियां कब तक?
उरूज-ए-बख़्त (नसीब से मिली ऊंचाई) की ख़ातिर तुम्हें दरकार (ज़रूरी) है अफ़्शां (बिखेरना)
हमारे ज़र्रा-हा-ए-ख़ाक होंगे ज़र-फिशां (चमकदार) कब तक?”

मुहम्मद हुसैन आज़ाद: अपने कलाम ‘आब-ए-हयात’ के लिए मशहूर मुहम्मद हुसैन आज़ाद, उर्दू में आधुनिक कविता के आंदोलन के संस्थापकों में शामिल हैं. उनकी देशभक्ति से भरी नज़्म ‘हुब्ब-ए-वतन’ में उन लोगों को संबोधित किया गया है, जो परिस्थितियों को देखकर चुप हो गए थे. 

“ऐ आफ़ताब-ए-हुब्ब-ए-वतन तू किधर है आज 
तू है किधर कि कुछ नहीं आता नज़र है आज 
तुझ बिन जहां है आंखों में अंधेर हो रहा 
और इंतिज़ाम-ए-दिल है ज़बर ज़ेर हो रहा 
ठंडे हैं क्यूं दिलों में तिरे जोश हो गए 
क्यूं सब तिरे चराग़ हैं ख़ामोश हो गए”

सुरूर जहानाबादी: पीलीभीत के जहांनाबाद में जन्मे दुर्गा सहाय ने ‘सुरूर जहानाबादी’ पेननेम से आज़ादी की अलख जगाई. उन्होंने अपनी नज़्म ‘गुलज़ार-ए-वतन’ में देश को एक ऐसी जगह के रूप में चित्रित किया है, जहां एक नई सुबह आने वाली है और परिंदों के गीत सुनाई देते हैं. वो देशभक्ति के पौधे लगाने की बात करते हैं. सुरूर, अपनी नज़्म में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि हमें एक चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है कि हम साथ रहें और अपनी ज़मीन पर डटे रहें. 

“फूलों का कुंज-ए-दिलकश (मनोहर झाड़ियों से घिरी जगह) भारत में इक बनाएं 
हुब्ब-ए-वतन (देशभक्ति) के पौधे इस में नए लगाएं
ख़ुश ख़ुश हो शाख़-ए-गुल पर ग़म हो न आशियां का 
हुब्ब-ए-वतन का मिल कर सब एक राग गाएं 
लहजा जुदा हो गरचे मुर्ग़ान-ए-नग़्मा-ख़्वां (परिंदों का गीत) का”

ज़फ़र अली ख़ां: स्वतंत्रता सेनानी और शायर ज़फ़र अली ख़ां ने क्रांतिकारी और देशभक्ति में डूबी कई नज़्में लिखीं. उन्होंने हर हिंदुस्तानी के दिल में आज़ादी के लिए जुनून पैदा किया. उनकी नज़्म ‘इंक़लाब-ए-हिंद’ इसका एक बेहतरीन उदाहरण है. उन्होंने अपनी इस नज़्म में भारत की क्रांति को ‘दुनिया की क्रांति’ बताया है.

“बारहा देखा है तू ने आसमां का इंक़लाब 
खोल आंख और देख अब हिन्दोस्तां का इंक़लाब 
मग़रिब ओ मशरिक़ नज़र आने लगे ज़ेर-ओ-ज़बर (उथल-पुथल)
इंक़लाब-ए-हिन्द है सारे जहां का इंक़लाब”

अली सरदार जाफ़री: उर्दू के अग्रणी प्रगतिशील शायरों में शामिल अली सरदार जाफ़री, राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हुए और अपनी राजनीतिक गतिविधियों की वजह से कई बार जेल गए. सलाखों के पीछे रहते हुए उन्होंने कई नज़्में लिखीं. वो अपनी नज़्म ‘उठो’ में लिखते हैं…

“उठो हिन्द के बाग़बानो उठो 
उठो इंक़िलाबी जवानो उठो 
किसानो उठो काम-गारो उठो 
नई ज़िंदगी के शरारो उठो 
उठो खेलते अपनी ज़ंजीर से 
उठो ख़ाक-ए-बंगाल-ओ-कश्मीर से 
उठो वादी ओ दश्त ओ कोहसार से 
उठो सिंध ओ पंजाब ओ मल्बार से 
उठो मालवे और मेवात से 
महाराष्ट्र और गुजरात से 
अवध के चमन से चहकते उठो 
गुलों की तरह से महकते उठो 
उठो खुल गया परचम-ए-इंक़लाब 
निकलता है जिस तरह से आफ़्ताब 
उठो जैसे दरिया में उठती है मौज 
उठो जैसे आंधी की बढ़ती है फ़ौज 
उठो बर्क़ की तरह हंसते हुए 
कड़कते गरजते बरसते हुए 
ग़ुलामी की ज़ंजीर को तोड़ दो 
ज़माने की रफ़्तार को मोड़ दो”

अल्लामा इक़बाल: मशहूर शायर और फ़लसफ़ी (दार्शनिक) अल्लामा इक़बाल आज़ादी के आंदोलन में तो नहीं शामिल थे लेकिन उन्होंने ऐसे कई एकता और देशभक्ति से सराबोर कलाम लिखे, जो मौजूदा दौर में भी लोगों की ज़ुबान पर होते हैं. ‘तराना-ए-हिंदी (सारे जहां से अच्छा)’, ‘नया शिवाला’ और इस तरह की कई अन्य नज़्में अपने आप में बहुत कुछ बयां करती हैं लेकिन उनकी एक ऐसी नज़्म जो इन सभी गीतों से अलग है. वो अपनी नज़्म ‘हिंदुस्तानी बच्चों का क़ौमी गीत’ में नई पीढ़ी को संबोधित करते हुए देश की भूली हुई अज़मत (महानता) याद दिलाते हैं.

“चिश्ती ने जिस ज़मीं में पैग़ाम-ए-हक़ सुनाया 
नानक ने जिस चमन में वहदत (एकता) का गीत गाया 
तातारियों ने जिस को अपना वतन बनाया 
जिस ने हिजाज़ियों से दश्त-ए-अरब छुड़ाया 
मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है”

बिस्मिल अज़ीमाबादी के कलाम क्रांतिकारियों की एक पीढ़ी की पुकार बन गए और भगत सिंह, राज गुरु और सुखदेव ने फांसी पर चढ़ते समय इसे गुनगुनाया.

“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए क़ातिल में है”

चन्द्रशेखर आज़ाद के कभी ना भूलने वाले मिसरे, जो आज भी सैनिकों को प्रेरित करते हैं. 

“दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगे 
आज़ाद ही रह रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे”

chandrashekhar azaad
चंद्र शेखर आज़ाद

‘फ्रीडम मूवमेंट के हर स्टेज पर उर्दू शायरी का अहम रोल…’

अरविंद मण्डलोई द्वारा लिखी गई किताब ‘जादूनामा’ में जावेद अख़्तर कहते हैं, “लोग समझते हैं कि उर्दू शायरी सिर्फ़ शराब और महबूब है, जबकि हिंदुस्तान के फ्रीडम मूवमेंट के हर स्टेज पर देखें तो उर्दू शायरी का अहम रोल रहा है. 30 के दशक में ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट’ आया, जिसमें सारी ज़बानों के लिखने वाले शामिल थे, उसमें एक ‘गैलेक्सी ऑफ़ स्टार्स’ उर्दू लिटरेचर ने पैदा किया.”

जावेद साहब आगे कहते हैं, “कृश्न चंदर, इस्मत, बेदी, मजाज़, फै़ज़, सरदार जाफ़री, जां निसार अख़्तर, कैफ़ी आज़मी, मजरूह और साहिर की शायरी लिबरल और प्रोग्रेसिव वैल्यूज़ की शायरी है. कृश्न चंदर और इस्मत की कहानियां प्रोग्रेसिव और लिबरल वैल्जूज़ की कहानियां हैं. उर्दू हमेशा एक बड़ी प्रोग्रेसिव, लिबरल, सेक्युलर, फॉरवर्ड-लुकिंग ज़बान रही है. इसके बारे में लोग जानते नही हैं.”

‘आज़ादी के सिपाहियों में उर्दू शायरी ने जोश पैदा किया…’

जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के उर्दू डिपार्टमेंट में प्रोफेसर कौसर मज़हरी कहते हैं, “उर्दू शायरी के दामन में जहां इंसानी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ दूसरे मौज़ू’आत हैं, वहीं जंग-ए-आज़ादी के हवाले से भी मुख़्तलिफ़ शायरों ने अपने-अपने अंदाज़ में शायरी की है. आज़ादी के मतवालों और जंग-ए-आज़ादी के सिपाहियों में जोश पैदा करने के लिए बहुत से अश’आर कहे गए, बहुत सी नज़्में कही गईं.”

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कौसर मज़हरी आगे कहते हैं कि जोश, फ़ैज़, मख़दूम, सलाम मछली शहरी, कैफ़ी आज़मी वग़ैरह ने ज़्यादातर अपनी नज़्मों के ज़रिये जोश और जज़्बे को मेहमीज़ (उत्साहित करना) किया. दूसरी तरफ़, मजाज़ ने, मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने अश’आर से जंग-ए-आज़ादी में बेदारी पैदा की. जैसा कि मजरूह सुल्तानपुरी ने कहा है…

“देख ज़िंदां (जेल) से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार 
रक़्स (डांस) करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख”

‘अवध में ऐसे बुलंद हुआ बग़ावत का परचम…’

मौजूदा दौर में उभरते उर्दू शायरों की फ़ेहरिस्त में शामिल तसनीफ़ हैदर कहते हैं, “इंक़लाब, आज़ादी-ए-हिंद और उर्दू शायरी का त’अल्लुक़ 1857 के ज़माने से ही देखने को मिलता है. ग़दर पर ग़ालिब ने ‘दस्तंबू’ नाम की किताब लिखी थी. बाद के शायरों में आ जाएं, तो जोश मलीहाबादी इस फ़ेहरिस्त में आगे रहे. अवध में बग़ावत का परचम बुलंद करने वाली वाजिद अली शाह की बेग़म, हज़रत महल ने जंग-ए-आज़ादी पर बहुत कुछ लिखा था, उनके कलाम काफ़ी मशहूर हैं.”

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‘आज़ादी की लड़ाई से उर्दू को मिला ख़ज़ाना…’

डॉ. एम सईद आलम आगे कहते हैं कि जंग-ए-आज़ादी ने उर्दू शायरी को भी बहुत कुछ दिया. उर्दू नज़्म का जो गंजीना यानी ख़जाना है, वो आज़ादी की लड़ाई की वजह से बहुत रिच हुआ. क्योंकि उर्दू में जज़्बा बहुत होता है, मौसीक़ी बहुत होती है. उस ज़माने में उर्दू पसंद बहुत की गई, लोग बहुत ज़्यादा ग़ज़लें और नज़्में पढ़ते थे.

‘अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने बरछियां बनी उर्दू शायरी…’

तसनीफ़ हैदर बताते हैं कि एक किताब है ‘उर्दू की क़ौमी शायरी के सौ साल’, जिसमें वतन की आज़ादी पर लिखी गई नज़्में शामिल की गई हैं. इसके अलावा जां निसार अख़्तर और अली सरदार जाफ़री ने आज़ादी के बाद ‘हिंदुस्तान हमारा’ नाम से दो वॉल्यूम में किताब लिखी, जिसमें ऐसी नज़्में शामिल हैं, जो हिंदुस्तान की आज़ादी, ख़ूबसूरती और मुख़्तलिफ़ मामलात के हवाले से लिखी गई हैं. उर्दू के छोटे-छोटे शेरों ने स्लोगन की हैसियत से जंग-ए-आज़ादी में बरछियां बनकर अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने एक अहम रोल अदा किया. 
 

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