‘…तो मैं पूरी तरह से मर ही जाऊंगी!’ तसलीमा नसरीन का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

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बांग्लादेश से आकर भारत में निर्वासित जिंदगी जी रहीं मशहूर लेखिका, डॉक्टर तसलीमा नसरीन ने आजतक डिजिटल से एक्सक्लूसिव बातचीत में बांग्लादेश के मौजूदा हालात, मजबूत होती जिहादी ताकतों और इस समस्या के हल पर विस्तार से अपने विचार रखे. उन्होंने बताया कि शेख हसीना की कौन सी गलती उन्हें भारी पड़ी. तसलीमा ने भारत में अपने रेसीडेंस परमिट रिन्यू न होने पर भी चिंता जताई. पढ़ें उनसे बातचीत के संपादित अंशः- 

केशव:  तसलीमा जी आप एक दुर्घटना का शिकार हुई थीं, अब कैसी है आपकी सेहत?

तसलीमाः उससे तेजी से उबर रही हूं. शारीरिक और मानसिक तौर पर काफी परेशान थी, पर इंसान कितना परेशान रह सकता है? अभी भी सेहत संबंधी समस्याएं हैं. लोगों के जीवन में दुर्घटनाएं होती रही हैं, पर जीवन तो रुक नहीं सकता, इसलिए मैं फिर से लेखन कर रही हूं.

केशवः आपने बांग्लादेश में जन्म लिया, वहीं पली बढ़ीं, कैसा था आपके बचपन का बांग्लादेश?

तसलीमाः मेरा जन्म साठ के दशक के शुरू में हुआ. पिता डॉक्टर थे,  मां घर में रहती थीं, वो पढ़ी लिखी थीं, उन्होंने नौकरी करने की कोशिश भी की लेकिन नहीं कर पाईं. हम चार भाई-बहन हैं. मैं नानी के घर जन्मी. मैंने बचपन में ही जन आंदोलन देखा 1969 में, काफी छोटी थी. मैंने फिर 74 में युद्ध देखा. एक युद्ध देखना एक इंसान के लिए काफी दुखद होता है.

केशवः आप जिस परिवेश में बड़ी हुईं क्या आपके जीवन पर इसका असर पड़ा?

तसलीमाः मैं जिस माहौल में पली बढ़ी वहां जीवन ऐसा कठिन नहीं था. धर्म का इतना बोल बाला नहीं था. ऐसा माहौल नहीं था कि मुझे कुरान पढ़ाई जाए, स्कूल ना भेजा जाए, हिजाब पहनाया जाए. मेरे आसपास एकदम सेक्युलर माहौल था. मेरे पिता कभी नमाज नहीं पढ़ने जाते थे, वो कभी धर्म प्रैक्टिस नहीं करते थे. कभी नमाज पढ़ने, कुराने पढ़ने या रोजा के लिए नहीं कहते. मैं किसी धार्मिक माहौल में नहीं पली बढ़ी. पिता हमेशा किताब, स्कूल बुक पढ़ने पर जोर देते थे. मां नमाज प्रैक्टिस करती थीं लेकिन वो भी बहुत बाद में. ये माहौल मेरे लिए एक तरह से अच्छा रहा क्योंकि मेरे जो आजाद ख्याल बने, विज्ञान को जाना इसके पीछे पिता का काफी योगदान रहा. मेरे घर में साहित्यिक, सांस्कृति परिवेश था. मेरे भाई वाद्य यंत्र बजाते, बहन रवींद्र संगीत गाती थी, मेरे नाना-नानी के घर में ऐसा ही माहौल था.

केशवः आपने तो डॉक्टरी की पढ़ाई की थी, फिर लेखन की तरफ कैसे चली आईं? 

तसलीमाः मैं पहले कविता ही लिखती थी. बचपन से ही लिखती थी. कविता पत्रिका सेजुती का मैंने संपादन शुरू किया था. मेरा बड़ा भाई भी कविता लिखता था. मेरे जीवन में लेखनी अचानक नहीं हुई, घर में एक साहित्यिक माहौल था.

मेरी पहली किताब जब 1986 में निकली तो उस वक्त मैं मेडिकल कॉलेज पास कर चुकी थी. पहली किताब शिकरे विपुल खुदा (Shikore Bipul Khudha) निकली थी. उस वक्त 85 में मैं सरकारी नौकरी कर रही थी. मेडिकल कॉलेज में पढ़ने के दौरान भी मैंने संपादन किया लेकिन बाद में पढ़ाई के कारण समय नहीं मिला. पास होने के बाद, डॉक्टरी करने के बाद मुझे देश में विभिन्न पत्रिकाओं के संपादन और उनमें कॉलम लिखने के लिए कहा गया. ‘निर्वासितो बाहिरे अंतरे’  कविता की मेरी दूसरी किताब का नाम था और ‘आमार किछु जाए आसे ना’ तीसरी का.

मुझे कॉलम लिखने के लिए कहा गया तो मैंने सोचा की राजनीति तो मुझे नहीं आती है इसलिए मैंने महिलाओं के बारे में लिखना शुरू किया. लड़कियों के जीवन की बात, मेरे जीवन में क्या हुआ? पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं कैसे बची हुई हैं? मैंने देखा कि मेरा लिखा लोग पसंद कर रहे हैं, जिसमें छप रहा है उस पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ जा रहा है. महिलाओं ने कहा कि आप लिखना बंद मत कीजिएगा, हमें उससे साहस मिलता है. उसी वक्त मेरी किताब को पश्चिम बंगाल से आनंद पुरस्कार मिला.

केशवः आप पहली बार कोलकाता आई थीं 1989 में, कैसा अनुभव था कोलकाता पहली बार आना?

तसलीमाः मैंने कोलकाता को लेकर इतना पढ़ा था, उपन्यास पढ़े थे तो ऐसा लग रहा था कि यहां की सड़कें मैं जानती हूं. लेखकों ने जैसे कोलकाता का वर्णन किया था मैंने सारा सब कुछ वैसा ही पाया था. रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन जाने के बाद मुझे वहां इतना अच्छा लगा था कि मेरी आंखों से आंसू निकले थे, मैं इतना खुश थी कि बता नहीं सकती.

केशवः आपने किसे आइडल माना था कि मुझे किसकी तरह होना है?

तसलीमा- मैंने बहुत सारी किताबें पढ़ीं लेकिन कभी नहीं सोचा कि मैं किसी की तरह होऊंगी. मैं खुद अपनी तरह बनना चाहती थी और अपनी तरह बनी. मैंने किसी की तरह बनने की कोशिश नहीं की.

केशवः सबकुछ अच्छा चल रहा था तो अचानक उस वक्त बांग्लादेश में आपका विरोध क्यों शुरू हो गया? महिलाएं तो आपकी लेखनी खूब पढ़ रही थीं.

तसलीमाः सिर्फ महिलाएं नहीं सभी प्रगतिशील इंसान मेरी लेखनी पसंद कर रहे थे. मैंने अपने लिखने में इस्लाम के नियमों की आलोचना की थी. कुरान, हदीस को पढ़ने के बाद मुझे बहुत सारी बातें बुरी लगी जो महिलाओं के लिए बुरी थी. देश में उस वक्त धर्म को बढ़ावा देना शुरू हो गया था. इस्लामी ताकतों वाली सरकार आ रही थीं. मुझे लगा कि देश पीछे जा रहा है, मेरे देश में धर्मनिरपेक्ष की जरूरत है. सभी धर्म में महिलाओं की या महिलाओं के हक की बात नहीं है. मैंने समझा कि हमारे देश, समाज में एक परिवर्तन की जरूरत है. महिलाओं को स्वावलंबी होने की जरूरत है, धर्म और राष्ट्र अलग नहीं होता हैं तो दिक्कत है. मुझे लगता है कि सभी धर्म ही नारी के खिलाफ होते हैं. संविधान कहता है कि पुरुष और महिला एक होते हैं लेकिन धर्म में ऐसी बात नहीं होती है.

सरकार ने ऐसा नहीं चाहा. राजनीति या फिर नेताओं का मतलब ही हुआ कि धर्म का इस्तेमाल करना. मैंने इस्लाम की आलोचना की इसलिए मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मेरे खिलाफ सड़क पर उतरना शुरू कर दिया. नब्बे के दशक की शुरुआत में विरोध शुरू हुआ था. पहले 50 हजार, फिर लाख फिर कई लाख विरोध में आ गए. एक मौलाना ने 1993 में मेरे खिलाफ फतवा जारी किया था. बांग्लादेश में फतवा तो निषेध है लेकिन सरकार ने उस फतवाबाज के खिलाफ एक्शन नहीं लिया. मेरे सिर की कीमत 50 हजार रखी थी. वो ऐसा नहीं कर सकते थे. सरकार ने उसके खिलाफ ना एक्शन लेकर मेरे खिलाफ एक्शन ले लिया, मेरे खिलाफ मामला किया. मौलाना जनप्रिय होने लगा, कट्टरपंथी, धर्म के धंधेबाजों ने समाज में सम्मान पा लिया. 1994 में मेरे खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ, उस वक्त जुलूस बहुत तेजी से बढ़ रहा था.

केशवः उस वक्त आपकी किताब लज्जा प्रकाशित हो गई थी?

तसलीमा- हां, लज्जा प्रकाशित हो गई थी, जिसे खालिदा जिया ने 6 महीने में बैन कर दिया था. पर उसमें इस्लाम की बात नहीं थी. मैंने महिलाओं की बात लिखते वक्त इस्लाम की बात लिखी थी. मैंने सिर्फ इस्लाम की बात नहीं बल्कि सभी धर्म में नारी के अवस्था की बात की. नारी को संतान उत्पादन मशीन के तौर पर देखा जाता है. ये जो कट्टरपंथी हैं वो पूर्ण रूप से नारी के खिलाफ है. अगर नारी धर्म की आलोचना करती है तो वो काफी नाराज होते हैं. मुझे फांसी की मांग हुई. सरकार ने मेरे खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया था, जिसके बाद मुझे हाइडिंग में जाना पड़ा था.

मेरे खिलाफ धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने का आरोप लगा था. 94 जून-जुलाई में मेरे खिलाफ वारंट हुआ था. बांग्लादेश छोड़ने के बाद मैं पहली बार स्वीडन गई थी. वहां जो मानवाधिकार संस्थाएं हैं वहां विदेश में आंदोलन किया. यूरोप के देशों से मेरे लिए आमंत्रण आया. निर्वासन का जीवन काफी कठिन है. पैर के नीचे कोई जमीन नहीं. देखिए 2004 से भारत में हूं. मेरा रेसीडेंस परमिट रिन्यू नहीं हुआ. भारत में रहना अच्छा लगता है लेकिन करीब डेढ़ महीने हो गए हैं उनका रेसिडेंस परमिट अभी तक रिन्यू नहीं किया गया है.

ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है. कभी भी एक्सपायर होता तो उससे पहले ही मुझे मिल जाता था. इस सरकार में मैं किसी को नहीं पहचानती. मुझे नहीं पता कि किससे बातचीत करनी है, गृह मंत्रालय में कौन इसे लेकर कौन मुझसे संपर्क करेगा. मेरी किसी से बातचीत नहीं होती. मैं ऑनलाइन अपना स्टेटस चेक करती रहती हूं.

मैंने एक दोस्त को कहा था कि पता लगाए. लोग सोचते हैं कि सरकार, नेताओं के साथ मेरी जान पहचान है लेकिन ऐसा नहीं है. क्योंकि मुझे अगर परमिट नहीं मिला , अब मेरी कहीं जाने की अवस्था नहीं है.

केशवः आप 1994 तक बांग्लादेश में थीं. उस वक्त जो बांग्लादेश की अवस्था थी और जो आज है इसे कैसे देखती हैं?

तसलीमा– बहुत ही खराब अवस्था है, बहुत ही खराब. शेख हसीना ने कट्टरपंथियों को प्रमोट किया. वो जिंदगी भर सत्ता में रहना चाहती थीं. उन्होंने बीएनपी को खत्म कर दिया था और ऐसे ही चुनाव करवाया था. उनके अंदर काफी घमंड आ गया था. वो कहती थीं कि ये मेरे पिता का देश है. पर बाकी जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी उनको भी सम्मान देना होगा. वो चाटुकारों के बीच रह रही थीं. वो वोटर्स और जन मानस से कट गई थीं. उन्होंने धर्म को खूब बढ़ावा दिया, कट्टरपंथियों को काफी महत्व दिया, मदरसा की डिग्री सामान्य कॉलेज की डिग्री के बराबर कर दी गई थी. आज जो मदरसा के छात्र उनके खिलाफ हुए तो वो तो उन्होंने ही किया था. मस्जिद की जरूरत नहीं है फिर भी 500 से ज्यादा मस्जिद बनवाईं. 

उन्होंने कट्टरपंथियों को खुश करने का काम किया था, उन्हें लगता था कि ये कट्टरपंथी उन्हें बचाएंगे. उन्होंने अवामी लीग के अंदर कट्टरपंथियों का ग्रुप बना रखा था. आवामी उलामा लीग बना ली थी, जो इस्लामी तकरीर देते हैं. ये तकरीर देने वाले एंटी-महिला, एंटी-हिंदू, एंटी समाज होते हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रम के बदले तकरीर होने लगी गांव-गांव, शहर-शहर. मदरसा में जो पढ़ाया जाता था उस पर कभी कंट्रोल नहीं किया. महिलाओं की शिक्षा, बुर्का आदि के लिए युवा समाज को ब्रेन वॉश किया. उन्हें इस्लामी जिहादी बनाया. हसीना का जो पतन हुआ उसके पीछे हसीना का ही हाथ है.

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केशवः आपको लगा था कि हसीना को ऐसे जाना पड़ेगा?

तसलीमाः मैंने नहीं सोचा था.  मुझे लगा था कि हसीना पीएम का पोस्ट छोड़ देंगी. लेकिन प्रगतिशील इंसानों को नहीं लगा था कि ऐसा होगा. छात्र उनके आवास की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे, अगर उस वक्त हसीना रहतीं तो उन्हें मार दिया जाता. छात्रों के आंदोलन को हमने सपोर्ट किया था, उनकी मांगें सही थीं लेकिन हम उस वक्त समझ नहीं पाए कि छात्रों के पीछे बड़े इस्लामिक ग्रुप थे. हसीना के जाने के बाद जब देश में अराजकता हुई तो समझ में आया कि इसके पीछे जमात और इस्लामी संस्थाएं हैं. अगर हसीना के खिलाफ गुस्सा था तो उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्तियां क्यों तोड़ी गईं? बाकी स्वतंत्रता सेनानियों की मूर्तियां क्यों तोड़ी गईं? ऑडिटोरियम क्यों जलाए गए? जो जिहादी हैं, जिन्होंने ब्लॉगरों की हत्याएं की उन्हें जेल से छोड़े जाने के बाद हमें समझ आया कि छात्रों के पीछे इस्लामी ग्रुप था. हसीना ने जमाती इस्लामी को बैन किया था उस पर से अब यूनुस की सरकार ने बैन हटा लिया. इसका मतलब ही कि ये इस्लामिक आंदोलन था. इससे साफ है कि वो अब क्या करना चाहते हैं. पूरा देश इस्लामी स्टेट की तरफ जा रहा है. अलकायदा पंथी ग्रुप भी इसके पीछे है. यहां वहाब फैलाना चाहते हैं, सूफियों के मजार तोड़े जा रहे हैं.

हम सोचते हैं कि युनूस प्रगतिशील इंसान हैं. पर ये जो तोड़फोड़, हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है उसके खिलाफ वो नहीं बोल रहे हैं. हम समझ रहे हैं कि युनूस भी जमाते-इस्लामी के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. उनके नेताओं के साथ मुलाकात कर रहे हैं. हम आशावादी थे कि ये लोग लोकतंत्र की रक्षा करेंगे लेकिन अभी तक इन्होंने चुनाव का ऐलान नहीं किया.

आपको शांति के लिए नोबल पुरस्कार मिला, आप अशांति के खिलाफ चुपचाप बैठे हैं. क्यों नहीं कर रहे हैं कि हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार बंद करे. वो कह रहे हैं कि वो विजय उत्सव कर रहे हैं. पर क्या लोगों की हत्या करके विजय उत्सव, अत्याचार करके विजय उत्सव होगा? इसके खिलाफ इस सरकार में कोई नहीं बोल रहा है. इसका मतलब जो इस्लामी कर रहे हैं सब ठीक है. रवींद्रनाथ टैगोर मुस्लिम नहीं थे इसलए उनका लिखा राष्ट्रगान वो चेंज करना चाह रहे हैं. इसलिए हम समझते हैं कि छात्रों के पीछे इस्लामी हाथ था.

आमार सोनार बंगाल को राजाकार के सपोर्टर चेंज करने की बात कर रहे हैं. इसके विरोध में प्रगतिशील इंसान बांग्लादेश, अमेरिका और यूरोप में राष्ट्रीय संगीत गा रहे हैं. एक सुर में राष्ट्रीय गीत गा रहे हैं. ये एक अच्छी और पॉजिटिव बात हुई है.

केशवः अभी जो हालात हैं, हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है, महिलाओं और हिंदुओं के हालात कितने खराब हो सकते हैं?

तसलीमा: इस बार हिंदुओं ने विशाल रैली की. हिंदू कह रहे हैं कि सबकुछ सहने के बाद भी हम रहेंगे, ये किसी के बाप का देश नहीं है. अभी वे वहां सिर्फ 8 प्रतिशत है अगर पलायन होता तो उन्हें भागना ही पड़ेगा. इस्लामी, कट्टरपंथी अगर पूरा कब्जा में ले लेंगे तो फिर हिंदुओं को तो भागना ही पड़ेगा.

केशवः आपने कब किसी धर्म का पालन नहीं करने और सेक्युलर रहने की सोची?

तसलीमाः बचपन से ही क्योंकि मेरे पिता भी धर्म का पालन नहीं करते थे. वो सिर्फ ईद मनाते थे, वो नमाज भी पढ़ना नहीं जानते थे. मां कहती थीं कि कुरान पढ़ो, नमाज पढ़ो. मैं मां को कहती कि क्यों मुझे फारसी में पढ़ना. फिर एक दिन 14-15 साल की उम्र में मैंने बांग्ला में कुरान-हदीस पढ़ी तब मुझे लगा कि ये सब महिलाओं के बारे में क्या लिखा हुआ है. 80 के दशक तक धर्म की उतनी चर्चा नहीं होती थी. मस्जिद में सिर्फ बड़े-बूढे जाते थे. अभी तो बच्चे, युवा सब जा रहे हैं. रोड ब्लॉक कर नमाज पढ़ रहे हैं. अतिरिक्त धर्मांध से कट्टरपंथ और फिर आतंकवाद शुरू होता है. एक दिन में कोई आतंकवाद नहीं होता है. लंबे समय तक इस्लामी ब्रेनवॉश होता है.

केशवः सेफ और सेक्युलर माहौल के लिए कौन से सुधार जरूरी हैं?

तसलीमा– मैं 40 साल से बोल रही हूं मदरसा की जरूरत नहीं है, विज्ञान शिक्षा का स्कूल बनाओ. धर्म पढ़ना है घर पर पढ़ो, मस्जिद इतनी क्यों बना रहो हो, इसके बदले विज्ञान की प्रयोगशालाएं बनाओं. इंसान के अंदर कल्चर रीच करो. कुछ भी होते ही मस्जिद बना रहे हैं. सारा जीवन पाप कर रहे हैं, हज जा रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि पाप से मुक्ति मिल जाएगी और फिर मुहल्ले में आकर एक मस्जिद बना दे रहे हैं. इसमें बदलाव की जरूरत है. प्रत्येक सरकारों ने इसे बढ़ावा दिया, धर्म को बढ़ावा दिया. कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया. ऐसा करके आप कुछ दिन गद्दी पर बैठे रह सकते हैं लेकिन इससे देश का फायदा नहीं हुआ. देश में तो वैज्ञानिक, शिल्पी, बुद्धिजीवी की जरूरत है. वही देख पा रही हूं कि देश धर्म की राह में अंधा होता जा रहा है. पाकिस्तान का झंडा फहराया जा रहा है. पाकिस्तान तो एक तरह फेल्ड स्टेट है, उसकी बराबरी क्यों करना. राजाकार लोग अभी भी पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते हैं और भारत का विरोध किए जा रहे हैं.

केशवः कोलकाता में आर जी कर अस्पताल में जो हुआ उसमें इंसाफ के लिए  एक महीने से लगातार आंदोलन हो रहा है. आप फॉलो कर रही हैं.

तसलीमा- हां, मेरा समर्थन है आंदोलन को. आंदोलन करते रहना होगा. ये आंदोलन ढाका के आंदोलन की तरह है. ये आंदोलन चलाना होगा जब तक न्याय ना मिले. देखिए, पहले निर्भया की घटना हुई थी. उस वक्त जनता ने आंदोलन किया था. लेकिन फिर क्या हुआ, उसके बाद भी बलात्कार की घटनाएं हुईं, ये रुक नहीं रहा है. कानून बना कि फांसी होगी फिर भी ये घटनाएं हो रही हैं. मुझे लगता है कि लोग कहते हैं कि मानसिकता चेंज करनी होगी. पर ये तो एक दिन में नहीं बदलेगा. समाज में नारी को यौन वस्तु की तरह देखा जाता है. इसलिए नारी पर आक्रमण होता है, रेप महिलाओं पर एक आक्रमण की तरह है. समाज जब तक पुरुष प्रधान रहेगा तब तक नारी को दिक्कत होगी क्योंकि मानसिकता एक दिन में नहीं बदलती. समान अधिकार का समाज बनेगा तो मानसिकता चेंज हो जाएगी.

केशवः अभी आप क्या लिख रही हैं?

तसलीमाः मैं छोटी किताबें लिख रही हूं. 50 कहानियों की एक किताब इस बार बुक फेयर में प्रकाशित होगी. नॉर्मल रूटीन यही है कि जब मन करता है लिखती हूं. लिखना ही मूल है. पढ़ना होता है. मेरी एक बिल्ली है,  उसकी उम्र 21 साल है. उसकी सेवा करनी होती है.

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